Women in Church Leadership | सच्चाई जो सबको जाननी चाहिए"
क्या औरतें पास्टर (आध्यात्मिक अगुवे) बन सकती हैं — यह सवाल अक्सर पूछा जाता है।
कुछ लोग मानते हैं कि पास्टर की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ मर्दों को ही दी गई है।
वहीं कुछ लोग कहते हैं कि वो नियम उस समय की संस्कृति के हिसाब से थे,
लेकिन अब समय बदल चुका है, इसलिए औरतें भी पास्टर बन सकती हैं।
सच कहें तो, ज़्यादातर लोग इस विषय पर औरतों की असली भूमिका को समझने के बजाय
सिर्फ़ इसी एक बात पर अटक जाते हैं —
“क्या महिलाएँ पास्टर बन सकती हैं या नहीं?”
और फिर इसी पर बहस करते रहते हैं।
लेकिन इस सवाल पर मेरी एक साफ़ राय है,
जो मैं इस पोस्ट के आखिर में बताऊँगा।
उससे पहले, मैं यह ज़रूर कहना चाहता हूँ कि
मसीही औरतों का बहुत आदर किया जाना चाहिए।
कलीसिया (Church) में उनकी एक बहुत अहम और ज़रूरी भूमिका होती है,
जिसे कई बार लोग नज़रअंदाज़ कर देते हैं।
तो इस पोस्ट में, मैं पाँच महत्वपूर्ण बातें बताऊँगा
जो हर मसीही व्यक्ति को कलीसिया में औरतों की भूमिका के बारे में जाननी चाहिए।
1. स्त्रियों को नेतृत्व (“Leadership”) की भूमिका में होना चाहिए
पहली बात यह है कि — स्त्रियाँ भी कलीसिया (Church) में नेतृत्व “Leadership” के पदों पर हो सकती हैं।
रोमियों 16:1–2 में बाइबल में लिखा है:
मैं तुम से फीबे की, जो हमारी बहिन और किंख्रिया की कलीसिया की सेविका है, बिनती करता हूं।
I commend unto you Phebe our sister, which is a servant of the church which is at Cenchrea:
कि तुम जैसा कि पवित्र लोगों को चाहिए, उसे प्रभु में ग्रहण करो; और जिस किसी बात में उस को तुम से प्रयोजन हो, उस की सहायता करो; क्योंकि वह भी बहुतों की वरन मेरी भी उपकारिणी हुई है॥
That ye receive her in the Lord, as becometh saints, and that ye assist her in whatsoever business she hath need of you: for she hath been a succourer of many, and of myself also.
इस वचन में प्रेरित पौलुस ने फीबे नाम की एक स्त्री की बहुत तारीफ़ की और रोम की कलीसिया से कहा कि वे उसका आदर करें और उसकी मदद करें।
रोमियों 16 में पौलुस ने कई पुरुषों और स्त्रियों का ज़िक्र किया है जिन्होंने शुरुआती कलीसिया में अहम ज़िम्मेदारियाँ निभाईं — और उनमें सबसे पहले फीबे का नाम लिया गया है। उसने “सेविका” Servant या Minister और “संरक्षिका” Guardian के रूप में काम किया।
“सेविका” के लिए यूनानी में वही शब्द प्रयोग हुआ है जो “डीकन” (Deacon) — यानी कलीसिया में एक औपचारिक official पद — के लिए होता है (1 तीमुथियुस 3 में इसका ज़िक्र है)।
“संरक्षिका” का मतलब है — कोई ऐसा व्यक्ति जो कलीसिया को आर्थिक, सामाजिक और आत्मिक रूप से सहारा देता था।
पौलुस ने रोम की कलीसिया से कहा कि वे फीबे की बातों को सुनें और उसकी हर ज़रूरत में मदद करें। इसका मतलब यह हुआ कि वह एक सम्मानित और भरोसेमंद नेता थी।
कई बाइबल विद्वान मानते हैं कि फीबे ही पौलुस का पत्र रोम तक लेकर गई थी — और यह काम कोई भी सामान्य व्यक्ति नहीं करता था। ऐसा वही व्यक्ति करता था जो पत्र के संदेश को समझता हो और दूसरों के सवालों का जवाब दे सके।
👉 इसका मतलब साफ़ है कि फीबे शुरुआती कलीसिया में एक नेतृत्व leader की भूमिका में थी।
पुराने नियम में भी हमें ऐसी कई स्त्रियाँ मिलती हैं जिन्होंने नेतृत्व किया:
देबोरा — इस्राएल की न्यायी (judge) थी।
मरियम — मूसा और हारून के साथ इस्राएलियों का नेतृत्व किया।
एस्तेर — जिसने अपने लोगों को बचाया।
जब पुराने और नए नियम — दोनों में — स्त्रियाँ नेतृत्व में थीं,
तो यह साफ़ है कि आज भी स्त्रियाँ नेतृत्व लीडरशिप के पदों पर हो सकती हैं और होनी चाहिए।
2. स्त्रियों को कलीसिया में महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए
दूसरी बात — स्त्रियों को कलीसिया में महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए।
1 कुरिन्थियों 12:4–6 में लिखा है —
वरदान तो कई प्रकार के हैं, परन्तु आत्मा एक ही है।
Now there are diversities of gifts, but the same Spirit.
और सेवा भी कई प्रकार की है, परन्तु प्रभु एक ही है।
And there are differences of administrations, but the same Lord.
और प्रभावशाली कार्य कई प्रकार के हैं, परन्तु परमेश्वर एक ही है, जो सब में हर प्रकार का प्रभाव उत्पन्न करता है।
And there are diversities of operations, but it is the same God which worketh all in all.
यहाँ पौलुस ने कुरिन्थ की कलीसिया को यह सिखाया कि आत्मिक वरदान एकता के लिए हैं, न कि प्रतिस्पर्धा competition के लिए।
हर विश्वासियों के पास अलग-अलग वरदान हैं — लेकिन सबका स्रोत एक ही परमेश्वर है।
इसलिए जब परमेश्वर ने अपने आत्मा से पुरुषों और स्त्रियों दोनों को वरदान दिए हैं,
तो कलीसिया को चाहिए कि वे दोनों का उपयोग करें।
UNFORTUNATELY, आज भी बहुत सी कलीसियाएँ (Churches) स्त्रियों को किनारे कर देती हैं और नेतृत्व का ज़्यादातर काम सिर्फ़ पुरुषों तक सीमित कर देती हैं।
हाँ, मैं मानता हूँ कि कुछ पद जैसे “बुज़ुर्ग” या “पास्टर” आमतौर पर पुरुषों को दिए गए हैं,
लेकिन कई बार यही सोच इतनी बढ़ जाती है कि स्त्रियों को दूसरी नेतृत्व भूमिकाओं से भी रोक दिया जाता है।
पौलुस ने साफ़ कहा है कि आत्मिक वरदान (Spiritual Gifts) सभी विश्वासियों को दिए गए हैं — चाहे वो पुरुष हों या स्त्रियाँ।
कहीं भी बाइबल में यह नहीं लिखा कि “नेतृत्व” या “प्रशासन” का वरदान सिर्फ़ पुरुषों को ही दिया गया है।
आज ऐसी कई चर्च हैं जहां एक “महिला नेतृत्व टीम” बनाई गई है,
जो सीधे कलीसिया के बुज़ुर्गों elders के साथ काम करती है।
यह टीम स्त्रियों और परिवारों की देखभाल के लिए अपने आत्मिक वरदानों का उपयोग करती है।
अगर कलीसिया का सारा नेतृत्व सिर्फ़ पुरुषों के पास हो,
तो एक TEENAGE लड़की या एक अकेली माँ अपनी बातें खुलकर शायद न कह पाए।
ऐसी स्थिति में यह महिला नेतृत्व टीम उन जगहों को भरती है जहाँ पुरुष हमेशा नहीं पहुँच सकते।
इससे न केवल स्त्रियाँ सेवा में बढ़ती हैं, बल्कि वे वैसी ही आशीष और सहायक बनती हैं जैसा परमेश्वर ने उन्हें बनाया है।
👉 इसलिए कलीसियाओं को चाहिए कि वे अपने बीच की स्त्रियों के वरदानों को पहचानें,
उन्हें सिखाएँ और सेवा में इस्तेमाल करें, ताकि पूरा मसीही शरीर (Church) आशीषित हो सके।
3. स्त्रियों को शिक्षा देने में भाग लेना चाहिए
तीसरी बात यह है कि — स्त्रियों को भी शिक्षा देने में सक्रिय होना चाहिए।
2 तीमुथियुस 2:24 में लिखा है:
“और प्रभु का दास झगड़ालू न हो,
पर सब से नम्र हो, शिक्षा देने में समर्थ हो,
और बुराई सहन करने वाला हो।”
यहाँ पौलुस तीमुथियुस को बता रहा है कि प्रभु के दास को कैसा होना चाहिए —
वह झगड़ालू न हो, सबके प्रति दयालु हो, शिक्षा देने में सक्षम हो और धैर्यवान हो।
ध्यान दें कि पौलुस कहता है — “प्रभु का दास शिक्षा देने में समर्थ हो।”
हालाँकि यह पत्र एक पास्टर के रूप में तीमुथियुस को लिखा गया था,
लेकिन यह सिद्धांत सभी विश्वासियों पर लागू होता है — चाहे वो पुरुष हों या स्त्रियाँ।
शिक्षा देना सिर्फ़ पास्टरों या बुज़ुर्गों की जिम्मेदारी नहीं है,
बल्कि हर उस व्यक्ति की है जो प्रभु की सेवा करना चाहता है।
इसका एक स्पष्ट उदाहरण प्रेरितों के काम 18:26 में मिलता है:
वह (अपुल्लोस) आराधनालय में निडर होकर बोलने लगा, पर प्रिस्किल्ला और अक्विला उस की बातें सुनकर, उसे अपने यहां ले गए और परमेश्वर का मार्ग उस को और भी ठीक ठीक बताया।
And he began to speak boldly in the synagogue: whom when Aquila and Priscilla had heard, they took him unto them, and expounded unto him the way of God more perfectly.
यहाँ अपुल्लोस नाम का एक व्यक्ति था,
जो बड़े उत्साह से प्रभु का वचन प्रचार कर रहा था।
जब प्रिस्किल्ला (एक स्त्री) और उसके पति अक्विला ने उसे सुना,
तो वे दोनों उसे अलग ले गए और उसे वचन का सही ज्ञान दिया।
ध्यान दें — प्रिस्किल्ला एक स्त्री थी,
फिर भी उसने अपने पति के साथ मिलकर
एक पुरुष प्रचारक को वचन का सही ज्ञान दिया।
यह एक निजी private शिक्षा का क्षण था,
जो प्रेम और सही मार्गदर्शन का सुंदर उदाहरण है।
और इससे साफ़ होता है कि शिक्षा देना सिर्फ़ पुरुषों की जिम्मेदारी नहीं है।
इन दोनों खंडों से हम देखते हैं कि —
परमेश्वर के सेवकों को शिक्षा देने में सक्षम होना चाहिए,
और प्रिस्किल्ला जैसी स्त्रियों ने भी शिक्षण और मार्गदर्शन में अहम भूमिका निभाई।
मनुष्य को परमेश्वर के मार्गों में चलना चाहिए।
और एक तरीका जिससे महिलाएँ इसमें और आगे बढ़ सकती हैं, वो आगे नंबर 4 में है।
4. अगली पीढ़ी की स्त्रियों को तैयार करना
महिलाओं को अगली पीढ़ी की स्त्रियों को तैयार करने पर ध्यान देना चाहिए।
तीतुस 2:3–5 में लिखा है:
“इसी प्रकार बुढ़ी स्त्रियाँ भी चालचलन में पवित्र हों, चुगली करनेवाली या बहुत दाखमधु की दासी न हों, वे भले काम की शिक्षा दें, ताकि वे जवान स्त्रियों को अपने पति और बालकों से प्रेम करना सिखाएँ।”
इस खंड में, पौलुस ने तीतुस को — जो उस समय एक युवा पास्टर था —
कलीसिया को एक स्वस्थ और बहु-पीढ़ी वाली (multi-generational) कलीसिया के रूप में व्यवस्थित करने के लिए विशेष निर्देश दिए।
इन निर्देशों में से एक यह था कि बड़ी उम्र की स्त्रियाँ भले काम की शिक्षा दें और जवान स्त्रियों को सिखाएँ।
पुराने समय में, जवान स्त्रियों पर समाज की तरफ़ से सौंदर्य, विवाह और घर संभालने का बहुत दबाव होता था।
वे अक्सर कम उम्र में विवाह कर लेती थीं और घर चलाने की ज़िम्मेदारी उनके ऊपर आ जाती थी।
इनमें से बहुत सी जवान स्त्रियों को सही मार्गदर्शन की ज़रूरत होती थी, लेकिन उन्हें वह मिलता नहीं था। आज सोशल मीडिया के भटकाव में भी ऐसा बहुत ही ज़्यादा हो रहा है।
👉 पौलुस ने इस ज़रूरत को पहचाना।
उसने देखा कि जवान स्त्रियों को मदद, मार्गदर्शन और समर्थन चाहिए।
और यद्यपि पौलुस खुद उन्हें सिखा सकता था या बस यह कह सकता था कि “अपना जीवन ठीक करो”,
उसने इसके बजाय बड़ी उम्र की स्त्रियों को बुलाया कि वे सिखाकर और नेतृत्व करके इस ज़रूरत को पूरा करें।
इसलिए तीतुस 2:3–5 में पौलुस ने बड़ी उम्र की स्त्रियों को जवान स्त्रियों को तैयार करने की आज्ञा दी।
इसी तरह, 1 तीमुथियुस 2:2 में उसने बड़ी उम्र के पुरुषों को भी अन्य पुरुषों को सिखाने का निर्देश दिया।
👉 इस तरह पौलुस ने कलीसिया के लिए एक व्यवस्था (system) बनायी —
जो चेलापन (discipleship) और कलीसिया के हर सदस्य की सक्रिय भागीदारी पर आधारित थी।
अगर ऐसा है, तो हर कलीसिया को यह सोचना चाहिए कि वे अपनी स्त्रियों को कैसे सुसज्जित (equip) और सक्षम (empower) करें ताकि वे अगली पीढ़ी को सिखाने और तैयार करने के बुलाहट को पूरा कर सकें।
सच कहूँ तो, किसी कलीसिया द्वारा की जाने वाली सबसे प्रेमपूर्ण बातों में से एक यह होगी कि वे अपनी कलीसिया की जवान लड़कियों की सहायता और समर्थन के लिए बड़ी उम्र की स्त्रियों में निवेश करें,
उन्हें नेतृत्व और मार्गदर्शन के लिए तैयार करें।
👉 ऐसी स्त्रियों को नेतृत्व के लिए प्रशिक्षित करना एक बड़ा और मुश्किल काम है,
जो तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक कलीसिया इस विषय में दृढ़ और उद्देश्यपूर्ण मतलब की SERIOUS न हो।
5. महिलाओं को पास्टर या प्रेक्षक (Overseer) नहीं होना चाहिए
महिलाओं को प्रेक्षक (Overseer) यानी पास्टर या एल्डर नहीं बनना चाहिए।
1 तीमुथियुस 2:12 में लिखा है —
“मैं स्त्री को उपदेश देने या पुरुष पर अधिकार करने की आज्ञा नहीं देता, पर वह चुपचाप रहे।”
तो जब यह सवाल आता है कि क्या महिलाएँ पास्टर बन सकती हैं,
तो मेरा सीधा जवाब होगा — नहीं।
लेकिन मैं नहीं चाहता कि यह बात उन पहले चार पॉइंट्स को कम महत्व दे,
जो हमने इस पोस्ट में समझाए हैं, क्योंकि वे भी बाइबल की सच्चाई पर आधारित हैं।
मैं यह भी साफ़ करना चाहता हूँ कि पौलुस ने यह नहीं सिखाया कि महिलाएँ कभी भी सिखा नहीं सकतीं,
बल्कि उसने यह सिखाया कि महिलाएँ कलीसिया में पास्टर या एल्डर की भूमिका में
पुरुषों पर अधिकार न रखें और न ही उस रूप में शिक्षा दें।
यहाँ पौलुस कलीसिया में आधिकारिक नेतृत्व (पास्टर या एल्डर) के कॉण्टेक्स्ट में बात कर रहे हैं।
ध्यान दीजिये पास्टर/एल्डर सिर्फ एक शिक्षक नहीं, बल्कि चर्च के दूसरे पुरुषों पर आधिकारिक नेतृत्व और निर्णय करने वाला पद है।
1 तीमुथियुस 3:2-7 में पास्टर के लिए पुरुषों की विशेष योग्यताएँ बताई गई हैं:
एक पत्नी का पति होना
संयमी, विवेकपूर्ण और आदरणीय होना
आतिथ्यशील होना
शिक्षा में सक्षम होना
इसका मतलब यह है कि आधिकारिक नेतृत्व का पद पुरुषों के लिए विशेष रूप से निर्धारित था।
पर ऐसा क्यों? क्योंकि ये परमेश्वर की एक हरारकी, एक सृजनात्मक कारण (Creation Order) है।
1 तीमुथियुस 2:13-14 में लिखा है:
"क्योंकि आदमी पहले बनाया गया, फिर औरत; और आदमी धोखे में नहीं आया, बल्कि औरत धोखे में आ गई और अपराधी हुई।”
पौलुस इसे सृजनक्रम और भूमिका का आधार बताते हैं। पुरुषों को आधिकारिक नेतृत्व का पद दिया गया, जबकि महिलाओं को समर्थन, मार्गदर्शन और शिक्षा देने की भूमिका मिली।
अब कुछ लोग इस बात से असहमत हो सकते हैं,
लेकिन मैं आपको प्रोत्साहित करूँगा कि आप समझें कि हम ऐसा क्यों कह रहे हैं।
यह पत्र पौलुस ने तीमुथियुस को लिखा था, जो इफिसुस नगर में सेवा कर रहा था।
वहाँ झूठी शिक्षाओं और कलीसिया में अव्यवस्था की समस्या थी। इसलिए पौलुस ने उसे पास्टोरल (कलीसिया से जुड़ी) हिदायतें दीं ताकि कलीसिया में स्पष्टता और व्यवस्था बनी रहे।
इस खंड में पौलुस ने साफ कहा कि स्त्रियों को पुरुषों पर अधिकार करने या सिखाने की अनुमति नहीं थी।
लेकिन यह मनाही हर सिचुएशन के लिए नहीं थी, बल्कि विशेष कॉण्टेक्स्ट में थी —
पास्टर या एल्डर के पद के संदर्भ में।
क्योंकि पास्टर का पद बहुत विशेष है।
1 तीमुथियुस 3:2 में पौलुस ने कहा —
“एक प्रेक्षक निर्दोष होना चाहिए, एक पत्नी का पति, संयमी, संयमशील, आदरणीय, आतिथ्यशील, और सिखाने में समर्थ।”
यह पद पुरुषों के लिए निर्धारित था।
इसका मतलब यह नहीं कि महिलाएँ कभी शिक्षा नहीं दे सकतीं।
उदाहरण के लिए, प्रिस्किल्ला ने अपुल्लोस को सिखाया और उसे मार्गदर्शन दिया —
यह एक अच्छा और सही कार्य था, लेकिन उसने यह काम पास्टर के रूप में नहीं किया था।
इसलिए पौलुस की “सिखाने से मनाही” पास्टर या एल्डर के पद के लिए थी,
ना कि हर प्रकार की शिक्षा के लिए।
अब “स्त्री चुप रहे” इस वाक्य का अर्थ समझें।
यूनानी भाषा में इस शब्द का मतलब पूर्ण मौन नहीं है, बिल्कुल चुप रहना नहीं है,
बल्कि एक शांत, विनम्र, आदरपूर्ण और ध्यान से सीखने वाले स्वभाव से है।
उस समय अधिकांश स्त्रियाँ शिक्षित नहीं थीं, अनपढ़ हुआ करती थीं,
इसलिए पौलुस वास्तव में उन्हें सीखने का मौका दे रहा था — जो उस समय एक नई बात थी।
Even India में भी थोमा की कलीसिया पहली चर्च थी जिसने वहाँ की महिलाओं को पढ़ना सिखाया था, और इसलिए ही थोमा का वहाँ के समुदाय के द्वारा विरोध किया जाने लगा था।
पौलुस स्त्रियों को बाहर नहीं कर रहा था,
क्योंकि बाइबल में कई जगह दिखाया गया है
कि सभी विश्वासियों को सिखाने की आज्ञा दी गई,
और बड़ी स्त्रियों को जवान स्त्रियों को सिखाने का आदेश दिया गया।
तो जब पौलुस ने कहा “स्त्री चुप रहे,”
तो उसका मतलब था कि वे ऐसे तरीके से सीखें
जो कलीसिया में व्यवस्था और एकता को बढ़ाए।
इन शोर्ट पॉइंट्स में पौलुस की शिक्षा यह थी कि मसीही स्त्रियाँ परमेश्वर द्वारा निर्धारित context में सीखें और सिखाएँ,
लेकिन पास्टर या प्रेक्षक का पद योग्य पुरुषों के लिए रखा गया है।
अंत में
तो हर विश्वास करनेवाले को कलीसिया में स्त्रियों की भूमिका के विषय में इन बातों को ध्यान में रखना चाहिए —
महिलाएँ नेतृत्व (Leadership) की भूमिकाओं में रहें।
महिलाओं को कलीसिया में महत्वपूर्ण माना जाए।
महिलाएँ शिक्षण-सिखाने में सक्रिय रहें।
महिलाएँ अगली पीढ़ी की स्त्रियों को तैयार करने पर ध्यान दें।
महिलाएँ प्रेक्षक (Overseer) या पास्टर न बनें।
अंत में मैं यह कहना चाहता हूँ कि हाँ, यह एक विवादास्पद (Controversial) विषय है।
परंतु, भले ही आप मुझसे असहमत हों,
आइए उस बात पर ध्यान दें जिस पर हम सब सहमत हो सकते हैं —
कलीसिया को चाहिए कि वह महिलाओं को सशक्त करे, उन्हें आत्मिक रूप से बढ़ने में मदद करे, और उनकी देखभाल करे।
मुझे उम्मीद है कि इस विषय से आपको कुछ हद तक स्पष्टता मिली होगी।
अगर इससे आपके मन में और सवाल या विचार आएँ, तो वह भी बिल्कुल ठीक है —
सीखते रहिए और समझ को बढ़ाते रहिए।
आपका इस बारे में क्या सोचना है हमे कमेंट में बताइए।
हम आपके सारे कमेंट्स पढ़ते हैं।
जो कमेंट आके गाली देते हैं उनको GOD BLESS YOU,
जो अपने विचार रखते हैं कभी हम उनसे सीखते हैं कभी वो हमसे।
अगर पोस्ट अच्छी लगी तो लाइक और शेयर ज़रूर कर दे,
और सबसे ज़रूरी बात याद रखें — यीशु आपसे प्रेम करता है।
और मैं भी आपसे प्यार करता हूँ।
THANK YOU MAY GOD BLESS YOU